विधायी प्रगति के बावजूद, लैंगिक मुद्दे अभी भी हाशिये पर हैं: विशेषज्ञ

नयी दिल्ली, लोकसभा चुनाव से पहले, ‘नारी शक्ति’ के नारे के साथ महिलाओं के मुद्दों पर चर्चा ने नए सिरे से ध्यान आकर्षित किया है, लेकिन कई कार्यकर्ताओं ने इस बात को लेकर आशंका जताई है कि व्यापक आर्थिक और राजनीतिक बहस में महिलाओं की मूल चिंताओं की फिर से अनदेखी की जा सकती हैं। पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएफआई) की कार्यकारी निदेशक पूनम मुत्तरेजा ने कहा कि राजनीतिक दलों को लैंगिक तौर पर संवेदनशील नीतियों को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है और महिलाओं से जुड़े मुद्दों को केवल सांकेतिक रूप से नहीं उठाया जाना चाहिए बल्कि इन्हें अपने मूल एजेंडे में शामिल करना चाहिए।

उन्होंने व्यापक चुनावी विमर्श में महिलाओं के मुद्दों को ‘‘हाशिये पर’’ रखे जाने की आलोचना की। उन्होंने कहा, ‘‘महिलाओं को वास्तव में सशक्त बनाने और उनकी चिंताओं को दूर करने के लिए, यह जरूरी है कि राजनीतिक दलों और नेताओं को लैंगिक तौर पर संवेदनशील नीतियों को प्राथमिकता देते हुए इन्हें अपने मुख्य एजेंडे और घोषणापत्र में शामिल करना चाहिए।’’

उन्होंने कहा, ‘‘इसमें न केवल राजनीतिक रूप से महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाना शामिल है बल्कि यह सुनिश्चित करना भी शामिल है कि निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में उनकी आवाज सुनी जाए।’’

मुत्तरेजा ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘हमें मंत्रिमंडल और अन्य महत्वपूर्ण सरकारी कार्यालयों में अधिक महिलाओं की आवश्यकता है।’’ काफी समय से लंबित महिला आरक्षण विधेयक पिछले साल संसद में पारित हुआ और इससे महिलाओं को उम्मीद की किरण मिली है।

गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया से जुड़ी सीमा भास्करन ने महिला आरक्षण विधेयक जैसे उपायों के माध्यम से राजनीतिक एजेंसी को बढ़ाने के महत्व को रेखांकित किया।

उन्होंने रवांडा जैसे अन्य देशों के उदाहरणों का हवाला दिया, जहां इस तरह के कानून से राजनीति में लैंगिक समानता में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। उन्होंने कहा, ‘‘रवांडा के 2003 के संविधान में निर्वाचित पदों पर महिलाओं के लिए 30 प्रतिशत कोटा तय किया गया और 10 साल बाद यह देश राजनीति में लैंगिक समानता के मामले में दुनिया का अग्रणी बन गया।’’ बिहार के गया की एक सरपंच डॉली वर्मा ने कहा कि समाज के सभी क्षेत्रों की महिलाओं को अभी संसद में प्रतिनिधित्व नहीं मिल सकता है, लेकिन इस विधेयक से महिलाओं को मदद मिलेगी। अपनी यात्रा के बारे में विस्तार से बताते हुए उन्होंने कहा कि निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों को चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, खासकर ग्रामीण इलाकों में जहां पुरुष प्रधान मानदंड अक्सर राजनीतिक परिदृश्य को निर्धारित करते हैं।

अपने अभियान के बारे में बात करते हुए, वर्मा ने कहा कि यह महिला सरपंचों को उनके पुरुष समकक्षों द्वारा दरकिनार किए जाने के खिलाफ था और उनका अभियान स्थानीय शासन संरचनाओं के भीतर बनी व्यापक लैंगिक असमानताओं पर प्रकाश डालता है। उन्होंने कहा, ‘‘यह सामाजिक रवैया तभी बदलेगा जब हमारे पास अधिक मजबूत और स्वतंत्र महिला राजनीतिज्ञ और मंत्री होंगी। मुझे उम्मीद है कि अधिक लड़कियों के शिक्षित होने से, यहां तक कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी, वे अपने अधिकारों के प्रति राजनीतिक रूप से अधिक जागरूक हो जाएंगी। मुझे विश्वास है कि बदलाव आज नहीं तो निकट भविष्य में जरूर आएगा।’’

कुछ वृद्धि के बावजूद, पिछले कुछ वर्षों में महिला सांसदों का प्रतिशत अपेक्षाकृत कम रहा है, और उच्चतम अनुपात हाल के वर्षों में ही दर्ज किया गया है। लोकसभा में 1970 के दशक तक महिला प्रतिनिधित्व का प्रतिशत लगभग पांच रहा और 2009 में ही यह दोहरे अंक के आंकड़े तक पहुंच सका।

राज्यसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व लोकसभा की तुलना में थोड़ा कम रहा है, 1951 के बाद से अभी तक सदन की कुल सदस्यता का 13 प्रतिशत से अधिक नहीं हुआ है। यहां तक कि चुनाव में उतारे गए उम्मीदवारों के मामले में भी उनकी संख्या 20 प्रतिशत से कम है। पिछले लोकसभा चुनाव में कुल 8,049 उम्मीदवारों में से 724 महिला प्रत्याशी थीं। वर्ष 2019 के चुनाव में कांग्रेस ने सबसे ज्यादा 54 महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था। इसके बाद सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 53 महिलाओं को चुनाव मैदान में उतारा था।

अन्य पार्टियों में, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने 24 महिला उम्मीदवारों, अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस (एआईटीसी) ने 23, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) ने 10 और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) ने चार, जबकि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) ने एक महिला उम्मीदवार को मैदान में उतारा था।  पिछले आम चुनाव में 222 महिलाओं ने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप से चुनाव लड़ा था।  कार्यकर्ताओं ने कहा कि जहां महिला सशक्तीकरण का मुद्दा चुनावों के दौरान लगभग सभी राजनीतिक दलों के बीच एक प्रमुख चर्चा का केंद्र बना हुआ है, वहीं व्यापक आर्थिक और राजनीतिक चर्चा के बीच महिलाओं की मुख्य चिंताएं अक्सर हाशिए पर चली जाती हैं।

मुत्तरेजा ने कहा, ‘‘इस बीच, जैसे-जैसे हम अगले चुनावों की ओर बढ़ रहे हैं, यह देखना महत्वपूर्ण है कि क्या राजनीतिक दल महिला उम्मीदवारों को उचित संख्या में टिकट आवंटित करके लैंगिक समानता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करेंगे या नहीं।’’

क्रेडिट : प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया
फोटो क्रेडिट : Wikimedia common

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