सिलाई से आजीविका: लातूर जिले की महिलाओं ने हाथ से रजाई बनाने की कला को रखा है जिंदा

लातूर, पुराने और बेकार पड़े कपड़ों से रजाई तथा अन्य उत्पाद बनाने की पारंपरिक कला महाराष्ट्र के लातूर जिले में दूर दराज के गांवों में महिलाओं की आजीविका का साधन बनी हुई है। हाथ से बुनी इन रजाइयों को स्थानीय भाषा में ‘गोधड़ी’ कहते हैं। एक अधिकारी ने बताया कि स्व सहायता समूह ‘रूमा’ ने वर्ष 2017 में 50 हजार रुपये से इस परियोजना की शुरुआत की थी और वर्तमान में इससे महिलाओं को आठ हजार रुपये की मासिक आय हो रही है।

             छोटे स्तर पर शुरू किया गया गया यह उद्योग आज अंसरवाडा तथा निलंगा तहसील के आस-पास के इलाकों की 35 महिलाओं को रोजगार मुहैया करा रहा है। जिसमें 18 ये 60 आयु वर्ग की महिलाएं शामिल हैं और कुछ तो सुनने और बोलने में भी अक्षम हैं।  गोधड़ी इस स्व सहायता समूह का मुख्य उत्पाद है जिसमें पुराने,बेकार पड़े कपड़ों की मदद से कई परत वाले आकर्षक डिजाइन बनाए जाते हैं।

             रूमा परियोजना की अध्यक्ष रुक्मिणी पस्तालगे ने बताया कि इसकी शुरुआत आठ मार्च 2017 में हुई और इसका मकसद अंसरवाडा की महिलाओं को आर्थिक मदद मुहैया कराने के साथ ही पारंपरिक हस्तशिल्प कला को जिंदा रखना था। उन्होंने बताया कि यह काम जिले में कुछ गैर सरकारी संगठनों के साथ काम करने वाली मधुवंती मोहन के मार्गदर्शन में शुरू हुआ।

             ‘उम्मीद ग्रामीण आजीविका मिशन’ के एक अधिकारी ने कहा कि इस कार्य में लगी महिलाओं ने अपने नए एवं नवोन्मेषी डिजाइनों से कपड़ा निर्माण की इस कला को जिंदा रखा है।  उन्होंने कहा कि उम्मीद ग्रामीण आजीविका मिशन स्व सहयता समूहों द्वारा तैयार किए गए सामान को लोगों तक पहुंचाने के लिए उन्हें प्रदर्शनी आदि में मंच मुहैया कराकर उनकी मदद करता है।

             अधिकारी के अनुसार पिछले चार वर्ष में कम से कम 15 छोटी और बड़ी प्रदर्शनियां लगाई गई हैं और उनमें रूमा की महिलाओं द्वारा बनाई गई ‘गोदड़ी’ को इनाम तक मिल चुका है।

क्रेडिट : प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया
फोटो क्रेडिट : Wikimedia commons

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