अदालत मध्यस्थ निर्णय में संशोधन नहीं कर सकती: न्यायालय

नयी दिल्ली, उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 के तहत किसी अदालत को पंचाट के निर्णय को खारिज करने के जो अधिकार दिये गये हैं, उसमें फैसले को संशोधित करने की शक्ति शामिल नहीं है।

न्यायाधीश आर एफ नरीमन और न्यायाधीश बी आर गवई की पीठ ने कहा कि यह केवल संसद के पास अधिकार है कि वह मध्यस्थता अधिनियम, 1996 को लेकर अदालतों के अनुभव के आलोक में उपरोक्त प्रावधान में संशोधन करे और इसे दुनिया के अन्य कानूनों के अनुरूप लाए।

पीठ ने कहा, ‘‘यह बिल्कुल स्पष्ट है कि मामले में न्याय करने के लिए अगर किसी को अधिनियम की धारा 34 में निर्णय को संशोधित करने की शक्ति शामिल करना है, तो वह लक्ष्मण रेखा को पार कर रहा होगा।’’ पीठ ने आगे कहा कि किसी सांविधिक प्रावधान की व्याख्या करते समय एक न्यायाधीश को अपने को संसद की जगह रख कर सोचना होगा और यह पूछना होगा कि क्या संसद इसी तरह के परिणाम की अपेक्षा कर रही थी।

पीठ ने यह भी कहा कि संसद की मंशा स्पष्ट थी कि मध्यस्थता अधिनियम 1996 की धारा 34 के अंतर्गत पंच के अवार्ड (फैसले) में संशोधन का अधिकार नहीं है।

शीर्ष अदालत मद्रास उच्च न्यायालय की खंडपीठ के आदेश के खिलाफ एक अपील पर सुनवाई करते हुए यह बात कही। आदेश में कहा गया था कि कम से कम राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम, 1956 के तहत किए गए मध्यस्थता निर्णय में मध्यस्थता अधिनियम की धारा 34 को निश्चत रूप से इस तरह देखा जाना चाहिए कि उसमें पंचाट के फैसले में संशोधन का अधिकार है ताकि मुआवजा बढ़ाया जा सके।

शीर्ष अदालत ने यह टिप्पणी भी की कि ऐसे मामलों में मध्यस्थ निर्णय केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त एक सरकारी सेवक करता है, जिसके परिणामस्वरूप मुआवजा तय करना पूरी तरह विकृत तरीके से आंख मूंद कर मुहर लगाने का काम होता है।

न्यायालय ने कहा कि इस तथ्य को देखते हुए कि इन याचिकाओं में कम से कम, राष्ट्रीय राजमार्ग संशोधन अधिनियम, 1997 की संवैधानिक वैधता को चुनौती नहीं दी गई है, हमें इस आधार पर आगे बढ़ना चाहिए कि यदि हम तथ्यों पर हस्तक्षेप करते हैं, निर्णय को रद्द करते हैं तो गंभीर अन्याय होगा और मामले को उसी सरकारी कर्मचारी को भेजे जिसने जमीन के उस कम मूल्य को लिया जो केवल स्टांप शुल्क के उद्देश्य के लिए प्रासंगिक था।

क्रेडिट : पेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया
फोटो क्रेडिट : Wikimedia commons

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