बारह बरस की उम्र में तीरंदाजी शुरू करने वाली दीपिका ने संघर्ष और जज्बे से पायी है कामयाबी

खरसावां (झारखंड) , ओलंपिक तीरंदाजी में तीसरी बार देश का प्रतिनिधित्व करने की तैयारी कर रही दीपिका कुमारी को शुरुआती दिनों में काफी संघर्ष करना पड़ा था।

तोक्यो ओलंपिक में विश्व की नंबर एक तीरंदाज के तौर पर भाग ले रही दीपिका ने 12 साल की उम्र में इस खेल से जुड़ने का फैसला किया था। ट्रायल के बाद हालांकि उन्हें अकादमी में जगह नहीं मिली लेकिन उन्होंने तीन महीने में खुद को साबित करने की चुनौती ली और फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।

झारखंड के चांडिल-गम्हरिया वन क्षेत्र में स्थित छोटे से शहर खरसावां की अर्जुन मुंडा अकादमी से सफर शुरू करने वाली दीपिका के सपने जमशेदपुर स्थित टाटा तीरंदाजी अकादमी (टीएए) में आने के बाद सच होने लगे। बाद में टीएए उनका दूसरा घर बन गया।

दीपिका की तीरंदाजी की कहानी 2006 में शुरू हुई जब वह अपने दोस्त और रिश्ते में बहन दीप्ति कुमारी के लोहरदगा स्थित घर गयी थी। दीप्ति को तीरंदाजी करते देख उन्होंने भी इस खेल से जुड़ने का फैसला किया।

उस समय रांची के रातू में रहने वाली महज 12 साल की दीपिका खेलों से जुड़कर परिवार की आर्थिक मदद करना चाहती थी। उनके पिता ऑटो-चालक और मां नर्स का काम करती थी।

लोहरदगा से रांची लौटने के बाद उनके पिता शिवनारायण और मां गीता माहतो उन्हें अर्जुन मुंडा अकादमी में लेकर गये।

अकादमी की संचालक और मुंडा की पत्नी मीरा मुंडा ने दीपिका को देखकर कहा, ‘‘ तुमसे तो भारी धनुष है, तुमसे यह सब नहीं होगा।’’

दीपिका के माता-पिता की जिद्द पर वह हालांकि ट्रायल के लिए तैयार हो गयी। जिसमें दीपिका को निराशा हाथ लगी।

सरायकेला-खरसावां तीरंदाजी संघ के सचिव सुमंत चंद्र मोहंती ने कहा कि दीपिका के आवेदन को उस समय के कोच बी श्रीनिवास राव और हिमांशु मोहंती ने खारिज कर दिया था।

मोहंती ने खरसावां से पीटीआई-भाषा को बताया, ‘‘दीपिका ने इसके बाद फिर से मीरा से मुलाकात की और तीन महीने में खुद का साबित करने का वादा किया। इसके बाद मीरा जी ने अधिकारी की हैसियत से पत्र लिख कर दीपिका के नामांकन के लिए कहा।’’

राव ने कहा, ‘‘ उसमें जान ही नहीं थी। उसमें हालांकि अच्छी बात यह थी की उसकी शारीरिक संरचना तीरंदाजी के लिए उपयुक्त थी।’’

हिमांशु ने कहा, ‘‘ तीरंदाजी के लिए आपको ताकत और सहनशक्ति की जरूरत होती है। वह पूरी तरह से इसके उलट लग रही थीं लेकिन उनकी आंखों में दृढ़ संकल्प था और उन्होंने हम सभी को गलत साबित करने के लिए वास्तव में कड़ी मेहनत की।’’  

उनके साथ तीरंदाजी करने वाले भारत के पूर्व कंपाउंड तीरंदाज सुमित मिश्रा ने कहा, ‘‘ अभ्यास के दौरान उसे जो कहा जाता था वह उसे हमेशा दो बार करती थी। कमजोर शरीर होने के कारण वह जल्दी थक जाती थी लेकिन मन से कभी हार नहीं मानती थी और अभ्यास करती रहती थी।

दीपिका की लगन को देख कर अकादमी के स्टाफ उसका ज्यादा ख्याल रखते थे।

दीपिका अन्य अकादमी की लड़कियों के साथ मोहंती के घर पर रहती थीं, जबकि लड़के पास में मुंडा के घर में रहते थे।

राव ने कहा, ‘‘ उसे कभी चावल पसंद नहीं था इसलिए हम उसके लिए विशेष रूप से चपाती बनाते थे। दोपहर में, वह अमरूद के पेड़ पर चढ़ जाती थी और शाम को मेरे पिता के साथ हॉल में टीवी देखने बैठ जाती थी।  वह कुछ ही समय में हमारे परिवार का हिस्सा बन गई।

उन्होंने कहा, ‘‘उसने एक महीने के भीतर अपनी उम्र के लड़कों को हराना शुरू कर दिया और पीछे मुड़कर नहीं देखा।’’

दीपिका ने 2007 में जबलपुर में सब-जूनियर नेशनल में पदार्पण किया, लेकिन वहां से खाली हाथ लौटी। इसके बाद विजयवाड़ा में उसने स्वर्ण के साथ राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार सफलता का स्वाद चखा।

राव ने कहा, ‘‘उसके बाद वह आगे बढ़ती चली गयी।’’

दीपिका की तीरंदाजी के सफर में अगला पड़ाव जमशेदपुर स्थित टीएए था। जहां उन्होंने कोच धर्मेंद्र तिवारी और पूर्णिमा महतो की देखरेख में अपने कौशल को सुधारा।

दीपिका ने टीएए में लगभग 11 साल बिताए और यह उनके दूसरे घर जैसा था, हॉस्टल वार्डन कुंतला पॉल ने पहली मंजिल पर इशारा करते हुए उनके कमरे को दिखाते हुए कहा, ‘‘ खाना पकाने में मदद करना हो या मेरे बाल बनाना हो या फिर दिवाली के दौरान अपनी अद्भुत रंगोली कृतियों से वह सभी को आश्चर्यचकित कर देती थी। उसने हमेशा हम सब का दिल जीता है।’’

टाटा स्टील के खेल उत्कृष्टता केंद्र के प्रमुख मुकुल चौधरी ने कहा, ‘‘ पिछली बार भी हम बहुत आशान्वित थे क्योंकि, उससे ठीक एक महीने पहले रिकॉर्ड की बराबरी की थी। हमारे पास ओलंपिक पदक विजेता नहीं है। यह एक पदक है जो अभी तक नहीं मिला है इसलिए टाटा में हम सभी के लिए यह सबसे बड़ी अनुभूति होगी।’’

क्रेडिट : पेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया
फोटो क्रेडिट : Wikimedia commons

%d bloggers like this: